मुख्यपृष्ठ मोर छत्तीसगढ़ कर्णेश्वर धाम सिहावा नगरी। जानिए इन प्राचीन मंदिर का इतिहास । Kaneshwar Dham Sihawa-Nagri 2022 / Mor Chhattisagrh कर्णेश्वर धाम सिहावा नगरी। जानिए इन प्राचीन मंदिर का इतिहास । Kaneshwar Dham Sihawa-Nagri 2022 / Mor Chhattisagrh Author - GOES जुलाई 25, 2022 0 कर्णेश्वर धाम सिहावा नगरी Kaneshwar Dham Sihawa-Nagri कर्णेश्वर धाम ( Karneshwar Dham - Sihawa Nagri ) -भारत वर्ष कृषि प्रधान देश के साथ साथ ही तीर्थों का देश भी कहा जाता है जहा उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम में चारों धाम है। वहीं वहीं छोटे छोटे तीर्थ स्थान है जो पौराणिक इतिहास से जुड़ा हुआ है।छत्तीसगढ़ राज्य के धमतरी जिला से 70 किलो मीटर के दूरी नगरी ब्लॉक से 5 किलो मीटर के दूरी पर स्थित ग्राम देवुरपारा (सिहावा) पर यह प्राचीन मंदिर स्थित है ।कर्णेश्वर का नामकरण / Karneshwar ka Namkarn -कर्णेश्वर धाम सिहावा का नाम भी उन्हीं तीर्थों में से एक है पौराणिक गाथाओं से अवगत होता है कि महर्षि भगवान परशुराम जी भृगुवंशी थे जिनका तपस्या स्थल महेन्द्र गिरि पर्वत माला माना जाता है और भगवान परशुराम जी के आराध्य देव भगवान शंकर आशुतोष है। महाभारत काल में पाण्डु की पत्नि कुती को बरदान था कि जिस भी देवता को आराधना करोगी वह देवता शीघ्र प्रगट हो जाएगें, जब कुती कुआरी थी उस समय कौतुहल वश वह सूर्यदेव की स्तुति की। सूर्यदेव प्रकट होकर कुती को पुत्रवती का वरदान देकर चले गये और कुंती के द्वारा कुवारी में ही सूर्यदेव के अश से पुत्र हो गया जो दानवीर कर्ण के नाम से विश्वविख्यात हुआ।वही कर्णके शिक्षा एवं दीक्षा गुरू हुए भगवान परशु राम कहा जाता है कि इसी महेन्द्र गिरि पर्वत में ही कर्ण को परशुराम जी शिक्षा दीक्षा दिये। परशुराम जी के ईश्वर भगवान शंकर हैं तो उनके शिष्य कर्ण के भी ईश्वर भगवान शंकर ही हुए इसलिए भी कर्णेश्वर कहा गया।पुरातत्व बेक्ताओं के शोध और श्री कर्णेश्वर महादेव मंदिर में शिलालेख के अनुसार सोमवंशी राजाओं के पूर्वज जगन्नाथ पुरी उडिसा के मूल निवासी था। Contents Of table kaneshwar Dham Sihawa सोमवंशी राजा कर्णदेव / Somvanshi Raja karndev -इसवी सन 1130 में राज्य विस्तार में राजा सिंहराज नगरी आये उनके पुत्र बाघराज इसवी सन 1150 से 1170 और बाधराज के पुत्र मोपदेव 1170 से 1190 और भोपदेव के पुत्र राजा कर्णदेव हुए।सोमवंशी राजा कर्णदेव अपने वंश की कीर्ति को अमर रखने के लिए कर्णेश्वर देव हद में छः मंदिरों का निर्माण करवाया। एक अपने निःसंतान भाई कृष्णराज के नाम पर तथा दूसरा मंदिर अपनी पत्नि भोपाला देवी के नाम पर, शिलालेख से विदित होता है कि राजा कर्णराज नेत्रिनेत्रधारी भगवान शिव की आराधना कर प्रतिष्ठित किया। शिव के मस्तक में चंद्र सामवंशी राजाओं का प्रतीक चिन्ह है सोमवंशी राजा धर्मनिष्ठ एवं भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। राजा कर्णदेव के द्वारा मंदिर निर्माण करवाया गया इस कारण भी इस स्थान को कर्णेश्वर कहा गया।रा (कर्ण) सुने थे उसी परमात्मा को जपने लगे इसलिए भी इस स्थान को कर्णेश्वर कहा जाने लगा।पुरातत्व बेक्ताओं के शोध और श्री कर्णेश्वर महादेव मंदिर में शिलालेख के अनुसार सोमवंशी राजाओं के पूर्वज जगन्नाथ पुरी उडिसा के मूल निवासी था।राजा कर्णदेव के पूर्वज राजा सिंह राज के आगमन के पूर्व यह क्षेत्र नागवंशी राजा के अधीन रहा। फिर 1023 ईसवीं से कल्चुरी वंश राजा मांगेय देव हुए। गांगेय देव के वंशज गयाकर्ण ने 1124 ईसवी तक शासन किया नागवंशी राजाओं द्वारा निर्मित भवन जो नगरी में था नागवंशी राजाओं द्वारा महल निर्माण करवाने के कारण तथा सिहावा क्षेत्र के अधिक आबादी वाले नगर होने के कारण उस स्थान का नाम नगरी पड़ा। नागवंशी राजाओं द्वारा निर्मित भवन जीर्ण हो चुका था। जिसे सोमवंशी राजा जो उड़िसा से आकर बसे राजा सिंह राज के वंशज राजा कर्णदेव ने पुनः मरम्मत कर उस स्थान पर रहने लगा। जो आज भी नगरी के पुरानी बस्ती में स्थित है जिसे लोग कोत के नाम से जानते हैं।राजा कन्हर देव (कर्णदेव) ने देव हद में निर्मित छः मदिरों का देखरेख एवं पूजा पाठ का जिम्मा गोड समाज के माँझी परिवार को दे दिये। तब से माँझी परिवार पूजा अर्चना कर रहे थे। जो बाद में गढडोंगरी डोहलापारा में जाकर बस गये।कर्णेश्वर धाम मंदिर मे ध्वजा रोहण / karneshwar Dham mandir Me dwaja Rohan -आज भी माघ महिने के चर्तुदशी के दिन शिव अभिषेक होता है। उसके पूर्व माँझी परिवार के वंशजों द्वारा मंदिर शिखर पर ध्वजा रोहण कार्य उन्हीं के द्वारा होता है।राजा कर्णदेव नगरी के किला को छोड़कर कार्केर चले जाना और मंदिर का देख रेख -राजा कर्णदेव नगरी के किला को छोड़कर कार्केर चले गये फिर धीरे धीरे मंदिर के संरक्षण देखरेख भी कम हो गया तथा माँझी भी सिहावा छोड़कर गढ़डोंगरी चले गये। चुकि महानदी के किनारे पहाड़ एवं जगलो से घिरा हुआ था। जंगली जानवरों का हमेशा भय बना रहता था। इसी कारण यहां लोगों को आना जाना भी कम होता था। धीरे धीरे लोग इस स्थान को जंगल देऊर कहने लगे। और लोगों का आना जाना एवं पूजा पाठ भी पूर्ण रूप से बंद हो गया। महानदी के किनारे अधिक उपजाउ मिट्टी के कारण से छिपलीपारा के मालगुजार स्व. रतनसिंह (1650से 1700 ईसवीं सन के बीच) जंगल को कटवाकर खेती करना प्रारम किया तथा नदी किनारे कछार वाले भाग में आम का बगीचा लगवाया जिसमें से कुछ वृक्ष आज भी विद्यमान है।स्व रतनसिंह पवार के कार्यकाल में उडिसा से लक्ष्मण गिरी नाम के एक बाबा जी अपने पुत्र के साथ मीक्षायाचन के लिये सिहावा क्षेत्र आये और सध्या के समय मंदिर के समीप अपना रात्रि विश्राम करने के लिये डेरा बनाये और रात्रि भोजन बनाने लगे।भगवान भोले की कृपा हो या संयोग वश भोजन बनाते वक्त अंगीठी की आग मंदिर में लग गया क्योंकि मंदिर पत्थरों से निर्मित है पर जंगलों के सूखे पत्तों एवं धूल आदि से गर्भ गृह में भर चुका था। प्रातः काल जब याचक लक्ष्मण गिरी ने देखा तो मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव जी के लिंग विराजमान थे फिर स्नान आदि से निवृत होकर उन्होंने शिव जी का अभिषेक व पूजन किया और शंख को बजाया, शंख की आवाज़ को सुनकर रतन सिंह चौक पड़े और अपने नौकरों को आदेश दिया कि कौन है जो फूटहा देऊर में शख ध्वनि कर रहा है उसे पकड़ कर लाओ नौकरों ने उसे पकड़ कर मालिक के सामने पेश किया ठा. रतन सिंह उस डराये धमकाये कि किसके आदेश से तुमने फूटहा देऊर में शख बजाया, याचक ने उनसे माफी माँगी और दूसरे गांव की ओर भीक्षा याचन के लिये चले गये। उसी रात्रि में ब्रम्ह मुहुर्त के पूर्व ठा. रतन सिंह को स्वप्न हुआ कि इस मंदिर के गर्भगृह में में दुनिया के संहारक परम पिता शिव जी हूँ। तुमने मेरे होने वाले पुजारी को भगाकर ठीक नहीं किया है इतना कहकर मोले नाथ साधु के रूप में आये और चले गये और रतन सिंह का नींद खुल गया। प्रातः काल होते ही उन्होंने सभी नौकरों चरवाहो एव दरोगा को आदेश दिया कि उस त्रिपुट धारी बाबा को जो अपना नाम लक्ष्मण गिरी बताया था उसे पकड़ कर लाओ। नौकरों ने दूढना प्रारंभ किया तब लक्ष्मण गिरो बाबा मीक्षा याचन करते करते टेंगना ग्राम पहुंच गया था। उसे पकड़ कर नौकर लोग लाये तब ठाकुर रतन सिंह ने लक्ष्मण गिरी बाबा से चरणों में गिरकर माफी माँगी और उन्हें मंदिर का पुजारी नियुक्त किया। उनके जीविकोपार्जन के लिये 11 एकड़ जमीन तथा मंदिर के समीप एक मकान बनवा दिया और मंदिर पास ग्राम बसाना प्रारम्भ किया और उस ग्राम का नाम पुराने देऊर के कारण देऊरपारा रखे।लक्ष्मण गिरी भगवान कर्णेश्वर (भोलेनाथ) के प्रति अपार श्रद्धा एवं भक्ति से निष्ठा पूर्वक पूजन करने लगे। लक्ष्मण गिरी के पुत्र गणेश गिरि हुए। गणेश गिरि की दो कन्याएं हुई बिन्दाबाई एवं गिरिजा बाई बिंदा बाई का विवाह हनुमत पुरी से हुआ हनुमत पुरी के पुत्र खुबल पुरी एवं खुबल पुरी के पुत्र राजेन्द्र पुरी जो आज भी कर्णेश्वर धाम के सभी मंदिरों की पूजा कर रहे हैं।कर्णेश्वर धाम मंदिर की व्यवस्था / Karneshwar Dham Mandir ki Vyastha-ठा. रतन सिंह ने मंदिर की व्यवस्था हेतु भगवान कर्णेश्वर के चरणों में साढ़े सात एकड जमीन दान किये जिस जमीन की खेती का देख रेख प्रथम ट्रस्ट अध्यक्ष सुरज प्रसाद मिश्रा के समय से फिरतुराम साहू देऊरपारा निवासी कोषाध्यक्ष रहे फिर नारायण प्रसाद तिवारी अध्यक्ष हुए कोषाध्यक्ष जर्गेश्वर राम साहू जो गया प्रसाद अवस्थी एवं मेघराज नाहटा के अध्यक्षीय कार्यकाल तक स्व. श्री जगेश्वर राम साहू जी कोष का कार्य सम्हालते रहे,!मेघराज नाहटा के पश्चात पुखराज नाहटा फिर सुरेश नाहटा ट्रस्टीय अध्यक्ष पद पर आसीन रहे तथा कोषाध्यक्ष नोहर सिंह साहू जी रहे।कर्णेश्वर मंदिर की व्यवस्था हेतु ठा. रतनसिंह पवार साढ़े सात एकड़ जमीन मंदिर को दान दिये तथा जमीन में खेती का प्रभार घसिया राम साहू को सौंपे परन्तु कालान्तर में ठा. रतन सिंह के पुत्र गोपालसिंह के पुत्र लक्ष्मण सिंह ने सन् 1956 में सिहावा क्षेत्र के गणमान्य नागरिकों की एक बैठक बुलाई गयी। बैठक में कर्णेश्वर मंदिर ट्रस्ट का गठन किया गया। प्रथम ट्रस्टीय स्व. श्री लक्ष्मण सिंह पवार छिपली पारा, स्व. सोमनाथ दास नगरी, स्व. यशकरण सिंह बैस, स्व. नारायण सिंह शांडिल्य, स्व. मेघराज नाहटा नगरी, स्व. सुदन राम साहू सिरसिदा, स्व. चैनसिंह वर्मा नगरी के नाम का उल्लेख मिलता है। कर्णेश्वर मंदिर के समीप अमृत कुण्ड का पौराणिक कथा / karneshaw Dham Amrit Kund katha -कर्णेश्वर मंदिर के समीप एक अमृत कुण्ड है ,जो अभी भी सुरक्षित है किवदंती है कि सोमवंशी राजा कन्हार देव कोढ़ ग्रस्त थे जो अमृत कुण्ड के कीचड़ से ठीक हुये थे । कहा जाता है कि 1100 शक संवत के लगभग में कलिंग राजा के सात पुत्र थे जिसमें 6 राजकुमार थे और एक दासी पुत्र था। राजा अपने राज्य का सही संचालन, जन सेवा और जो राजा की मर्यादा को कायम रख सके।राज गद्दी देने के लिए योग्य पुत्र का चयन करने में राजा को कठिनाई हो रही थी, तब राजा ने अपनी कुल देवी आदि शक्ति महामाया से प्रार्थना किया की हे माँ मुझे उचित मार्ग दर्शन दें।कुल देवी आदि शक्ति ने राजा को स्वप्न में दर्शन दिये और कहा कि तुम अपने सातों पुत्र के साथ मेरे मंदिर में दर्शन के लिये आओ, आते समय रास्ता में अपने अगोछा को गिरा देना, जो पुत्र उस अगोछे को उठा कर तुम्हे देगा उसे ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी मान कर राजगद्दी सौप देना।आदि शक्ति के आज्ञानुसार राजा प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत होकर अपने सातों पुत्रों के साथ इष्ट देवी के मंदिर में दर्शन करने गये और बीच रास्ते में ही अपने अगोछे को गिरा दिया। उस अंगोछे को छह राजकुमार नही उठाये। सातवाँ दासी पुत्र राजकुमार उस अंगोछे को उठा कर राजा को दिया। राजा मंदिर में आदि शक्ति का अपने पुत्रो सहित दर्शन कर वापस राज दरबार में आये और देवी के आदेशानुसार दासी पुत्र को राजगद्दी का यवराज बनाने की घोषणा कर दिया। दूसरे दिन दासी -पुत्र का राज तिलक कर दिया। राजा द्वारा दासी पुत्र को राजतिलक एवं राजगद्दी सौपने के बाद, बड़ा पुत्र क्रोधित होकर दासी पुत्र का वध करने के लिये रात में तलवार लेकर गया।उनके इस कृत्य को देख के इष्ट देवी महामाया कुपित हो गई जिसमें राजा का बड़ा पुत्र तत्काल कोढ़ ग्रस्त हो गया वही कोढ़ ग्रस्त राजकुमार अपने एक कुत्ता के साथ पश्चाताप् करते हुये शेष जीवन बिताने तपोभूमी सिहावा के कर्णेश्वर स्थल पर पहुँचे। और देवपुर ग्राम के पास कुटिया बना कर रहने लगे। राजकुमार को को होने के कारण उनका कुत्ता भी साथ में रहने के कारण कोढ़ ग्रस्त हो गया था।एक दिन कोढ़ ग्रस्त राजकुमार महानदी के तट पर टहल रहे थे, तब उनका कुत्ता एक कीचड़ युक्त गड्ढे में लोटने लगा और लोटकर अपने मालिक राजकुमार के पास आकर अपने शरीर को फटकारा जिसमें कुछ कीचड़ राजकुमार के शरीर में पड़ा। जिस-जिस पर वह कीचड़ राजकुमार के शरीर पर पड़ा उस जगह का जख्म तुरन्त ठीक हो गया तथा कुत्ता कासंपूर्ण घाव भी ठीक हो गया, उसको देख कर राजकुमार उस कीचड़ में जाकर अपने पुरे शरीर में कीचड़ का लेप कर लिया जिससे राजकुमार के पुरे शरीर का कोढ़ जख्ग पूर्ण रूप से ठीक हो गया। कोढ़ समाप्त होते ही राजकुमार के हृदय में श्रद्धा जाग गई और मंदिरों का निर्माण प्रारंभ कर दिया, उस कीचड़ युक्त गड्ढे का नाम दिया अमृत कुण्ड जिसे बाद में राजकुमार कन्हार देव (कर्णदेव) ने लोहे के है परन्तु चादरों से सात परतो से ढक दिया।जो बाद में मिट्टी एवं पत्थरों से बरसात के पानी से पूर्ण रूप से ढक चुका कर्णेश्वर ट्रस्ट ने यादगारी के लिये पत्थर से एक छोटा सा कुण्ड नुमा स्मारक बना दिया है।कर्णेश्वर धाम मंदिर के समीप स्थित महानदी का त्रिवेणी संगम / Mhandi Triveni Sangam-महानदी के उस संगम स्थल पर जिसे लोग त्रिवेणी संगम मानते है, जहाँ पर माघ पूर्णिमा के दिन हजारों साधु संतो के साथ लाखों श्रद्धालु ब्रह्म मुहुर्त में स्नान करते है।महानदी के उत्गम कथा में भी प्रबुद्ध जनों के विभिन्न मत है अधिकत्तर लोगों से सुनने मिलती है कि महानदी महर्षि श्रृंगी ऋषि के कमण्डल से निकल कर फरसियाँ ग्राम के जंगल तक गई और श्रृंगी ऋषि के आहवान पर पुनः वापस होकर दक्षिण पश्चिम् होते हुये बंगाल की खाड़ी तक गई।महर्षि श्रृंगि ऋषि के कमण्डल से माँ स्वर्ण गंगा के रूप मे प्रकट होना / महानदी कथा - महर्षि श्रृंगि ऋषि के कमण्डल से माँ गंगा स्वर्ण गंगा के रूप में प्रगट हुई और भृगु ऋषि के आश्रम तक पहुँच कर रसातल में समा गई, जिस समय माँ स्वर्ण गंगा (महामाई) रसातल गई उस समय उस स्थान पर परासर ऋषि तपस्या कर रहे थे इसलिये वह स्थान फरसियाँ कहलायी। जब ऋषियों ने देखा कि गंगा मैया रसातल में चली गई तो ऋषियों ने पुनः गंगा मैया की अराधना किये, आहवान से प्रसन्न होकर गंगा मैया रसातल से सात धार के रूप में प्रगट हुई उल्लेश्वरी के रूप में प्रवाहित हुई और बालका नदी, स्वर्ण गंगा, उल्लेश्वरी (महानदी) के संगम स्थल के कारण भी इस स्थान को त्रिवेणी संगम कहा जाता है जिस तरह से गंगा जमुना और सरस्वती को इलहाबाद के तट पर देखने को मिलता है। जैसे सरस्वती विपरित दिशा में वह रही है जो अदृश्य रूप में है, उसी तरह से स्वर्ण गंगा विपरित दिशा में पूर्व की ओर बह रही है। कुछ संतो का मत है कि स्वर्ण गंगा अगस्त ऋषि आश्रम से निकलकर धरती के अंदर कर्णेश्वर में मिलती है इसलिये की उस स्थान का त्रिवेणी संगम कहा जाता है। चाहे जो भी हो वह स्थान जहाँ तीनो नदियों का पवित्र त्रिवेणी संगम है।महानदी संगम के पास पौराणिक सूर्य मंदिर / Mhandi sangam Ke Pas Pauranik Sury mandir-संगम से कुछ नीचे की ओर लगभग 50 से 60 मीटर दूरी पर जहाँ पहले सूर्य मंदिर था जो नदी के कटाव में बह चुका है। मंदिर के पत्थर आज भी नदी में यत्र-तत्र बिखरे अपनी करूण गाथा सुना रही है और सूर्य देव की मूर्ति जो काले पत्थरों से निर्मित है। उसे राम जानकी मंदिर में प्रतिठित किया गया (स्व. सुरज प्रसाद मिश्रा द्वितीय ट्रस्टीय अध्यक्ष के कार्यकाल)।सूर्य मंदिर से 20-25 मीटर नीचे अस्थि विसर्जन किया जाता है। अस्थि विसर्जन की परम्परा कब से आरंभ हुई इसकी जानकारी किसी को कुछ भी मालुम नही है परन्तु यह क्रम सदियों से चली आ रही है। कर्णेश्वर घाट पर स्थित देव कुंड / Karneshwar Ghat Par Sthit Dev Kund ke bare me jane -कर्णेश्वर मंदिर से लगभग 800 मीटर के दूरी पर महानदी के पास ही कर्णेश्वर घाट में वर्ष भर पानी नहीं रहता माघ महिने के बाद महानदी पुर्णरूप से सुख जाती है जिसके कारण से कर्णेश्वर घाट के पण्डा लोग अस्थि विसर्जन स्थल पर एक बड़ा सा गढ्ढा बना दिये रहते हैं जिसमें वर्ष भर पानी भरा रहता है और उसी गड्ढे में वर्षभर अस्थि विसर्जन की जाती है। अस्थि विसर्जन करने के लिये बस्तर, उड़िसा, कांकेर क्षेत्र मगरलोड क्षेत्र एवं सिहावा क्षेत्र के लोग आते है और प्रतिदिन लगभग 50 100 मृत आत्मा की अस्थि विसर्जन होती है।Aashi Kund Ka map karneshwar Sham मान लेते है- यदि 1 दिन में 50 मृत आत्मा की अस्थि 200 ग्राम विसर्जित होती है। तो | 200 x 50 = 10,000 दस हजार ग्राम = 10 कि. ग्राम 30 दिन में (1महिने में) 10x30 = 300 किलो ग्राम= 3 क्विटल तो 12 महिने में 3x12 = 36 क्विटल यदि उस गढ्ढे 36 क्विटल लगभग हड्डी को इकट्ठा करे गड्ढा एक ही वर्ष पहले भर सकता परन्तु आज तक वह नहीं भरा है और ना हड्डियों का नामोनिशान रहता दिनों विसर्जित हुई हड्डियाँ गड्ढा गायब वह हड्डियाँ जाती कहाँ ?( सन् 1995 इंजीनियरिंग कालेज रायपुर के छात्रों के जहाँ अस्थि विसर्जन वहाँ का और को प्रयोग शाला ले जाकर शोध किया जिसमें पाया कि कुण्ड में ना कोई तत्व है गला सके या रेत के अंदर हड्डियाँ जा सके।)कर्णेश्वर धाम माघ पूर्णिमा मेला की शुरुवात / Karneshwar Dham Mela Ki shuruwat -ठा रतन सिंह के पुत्र गोपाल सिह हुए गोपाल सिंह के घर एक दिन कांशी से एक संत आये जिन्होन यह बताया कि माघ महीने के पूर्णिमा के दिन जो भी सज्जन इस महानदी के त्रिवेणी संगम में ब्रम्ह मुहुर्त में स्नान करेगा और शिव पूजन कर दान दक्षिणा कर भोजन बनाकर प्रसाद पान करेगा उसे एक अश्व मेघ यज्ञ एवं एक गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त होगा। तब अपने परिवार सहित एवं रिश्तेदारों को आमंत्रित कर गोपाल सिंह यह परम्परा को प्रारम्भ किये। फिर धीरे धीरे अन्य मालगुजारों को भी माघ पूर्णिमा के दिन आमंत्रित करने लगे। जिसमें मालगुजारों में माँझी परिवार भी शामिल हुए और माघ पूर्णिमा स्नान दान की प्रथा प्रारम्भ हो गई साथ ही साथ व्यापारियों एवं दैनिक उपयोग वाली दुकानदारों कोभी आमंत्रित कर एक दिवसीय मेला का आयोजन भी प्रतिवर्ष होने लगा। वारिसे परिवार (माँझी) ने लोगों को बताया कि सोमवंशीय राजा कर्णदेव के इष्ट देवी मावली माता (टिकरी वाली) है जो कर्णेश्वर महादेव के मंदिर एवं विष्णु भगवान के मंदिर जिसे आज राम जानको मंदिर के नाम से जानते हैं। दोनो मंदिर के सामने राजा कर्ण द्वारा स्थापित है। अथवा जिस समय राजा कर्णदेव ने मंदिर में भगवान के विग्रह (मूर्ति) एवं शिव लिंग का प्राण प्रतिष्ठा किया था। उस समय अपने इष्ट देवी गढ़ मावली माता (टिकरी वाली) को भी प्रतिष्ठित किया था। जो अदृष्य रूप में स्थापित है। उनके नाम पर एक लकड़ी का खम्मा स्थापित है। उनके नाम पर माघ पूर्णिमा के दूसरे दिन फाल्गुन कृष्ण पक्ष एकम को मड़ाई का आयोजन होने लगा। मड़ाई में देवी देवताओं के आमंत्रण का भार माँ शीतला के आदेशानुसार माँझी परिवार सम्हालन लगा, तथा देवी देवताओं का प्रतिनिधित्व बालगिर बाबा (देवता) करने लगे। तब से कर्णेश्वर महादेव में मड़ाई का आयोजन प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे विशाल मेला का आयोजन होने लगा। Tags पौराणिक कथाप्राचीन मंदिरमंदिरमोर छत्तीसगढ़ Facebook Twitter Whatsapp और नया पुराने